धर्म का उद्देश्य क्या है?
जिससे मनुष्य सुखी हो सके। यह बौद्ध धर्म का लक्ष्य है जैसा कि वी आर वन रेयूकाई सुकार्य अभ्यास किया गया है:हर एक व्यक्ति को बिना किसी अपवाद के खुश रहने में सक्षम बनाना।
धर्म का उद्देश्य, केवल मानव को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि को अक्षय सुख उपलब्ध करवाने का मार्ग प्रशस्त करना है। मानव के लिये जीवन के अनुकूल सुख भी एक पड़ाव मात्र है, लक्ष्य तो निश्चित ही शाश्वत सुख है। सभी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए जियो और जीने दो का सिद्धांत अस्तित्व में आया है। शान्ति से जीनें और अन्य को भी जीनें देने के उद्देश्य से ही सभ्यता और संस्कृति का विकास हासिल किया गया है। क्योंकि सभ्यता और संस्कार से हम भी आनंद पूर्वक जीते है, और अन्य सभी प्राणियों के लिए भी सहज आनंद के अवसर उपलब्ध करवाते है। यही है धर्म के उद्देश्य की सबसे सरल परिभाषा।
यह अभ्यास के रूप में बौद्ध धर्म का लक्ष्य है.
हर एक व्यक्ति को बिना किसी अपवाद के खुश रहने में सक्षम बनाना। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है सम्पूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। "मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है"नाम म्यो होरेंगे-क्यो
बौद्ध धर्म का सार और मान्यता यह है कि हममें से प्रत्येक के पास जीवन में आने वाली किसी भी समस्या या कठिनाई को दूर करने की क्षमता होनी चाहिए।
यह वह अंतर्निहित क्षमता है जिसे हम बुद्ध प्रकृति के रूप में संदर्भित करते हैं, जीवन की एक ऐसी स्थिति जो असीम साहस, ज्ञान और करुणा की विशेषता है।
बौद्ध धर्म के संस्थापक
बौद्ध धर्म के संस्थापक, शाक्यमुनि बुद्ध ने लोटस सूत्र में जीवन के इस नियम को व्यक्त किया, जहां उन्होंने खुलासा किया कि सभी लोग, बिना किसी अपवाद के, इस बुद्ध प्रकृति के अधिकारी हैं और स्वाभाविक रूप से सम्मान के योग्य हैं।
निचिरेन जापानी बौद्ध सुधारक
13 वीं शताब्दी में, निचिरेन दाइशोनिन नाम के एक जापानी बौद्ध सुधारक ने लोटस सूत्र, "म्यो-होरेंगे-क्यो" के शीर्षक को संस्कृत शब्द "नाम" के साथ, जिसका अर्थ है "स्वयं को समर्पित करना" के साथ प्रार्थना (दाइमोकू) करने की प्रथा को मान्यता दी। ये हमारे बुद्ध स्वभाव को भीतर से बाहर लाने का तरीका है ।
नाम-म्योहो-रेंगे-क्यो, हमारे जीवन में क्या महत्तव है .
सीधे शब्दों में कहें, नाम-म्योहो-रेंगे-क्यो हमारे जीवन के भीतर इस क्षमता या बुद्ध प्रकृति का नाम है। नाम-म्योहो-रेंगे-क्यो का जप करना, तो अपने बुद्ध स्वभाव का आह्वान करना है।
नाम-म्योहो-रेंगे-क्यो का जप करके, हम इस वास्तविकता को जागृत करते हैं कि हमारे जीवन के भीतर साहस, ज्ञान और करुणा के असीमित भंडार हैं - कि हम वास्तव में बुद्ध हैं। इस विश्वास के आधार पर, हम किसी भी दुख को बदल सकते हैं, अपने आस-पास के लोगों को खुशी की ओर ले जा सकते हैं, और अपने समुदायों और दुनिया में शांति पैदा कर सकते हैं। नाम-म्योहो-रेंगे-क्यो सभी लोगों के जीवन के भीतर निहित गरिमा और शक्ति की घोषणा है।
बुद्ध धर्म की परिभाषा
बुद्ध धर्म की परिभाषा ,हिन्दू धर्म , इसाई धर्म, इस्लाम धर्म ,सिख धर्म ,यहूदी धर्म से बिलकुल अलग है धर्मो को बुद्ध धर्म नहीं कहत्ते |मजहब से बुद्ध को कोई लेना देना नहीं है |धर्म से बुद्ध अर्थ है’ जीवन का शाशवत नियम है |जीवन का सनातन नियम,इससे हिन्दू, सिख, इसाई,इस्लाम,मजहब मजहब के झगड़े का कोई सम्बन्ध नहीं |यह तो जीवन के बुनियाद में जो नियमकाम कर रहा है | ऐसे शाशवत नियम है | बुद्ध उसीकी की बात करते है | और जब बुद्ध कहते है | धर्म की शरण में जाओ |तब बुद्ध यह नहीं कहे की किस धर्म के शरण में जाओ |बुद्ध कहते है धर्म को खोजो की शाशवत नियम क्या है ? उस नियम के शरण में जाओ |उस नियम से विपरीत मत जाओ नहीं तो दुःख पाओगे | ऐसा नहीं की कोई परमात्मा बैठा जो तुमको दंड देगा |कही कोई परमात्मा नहीं है |परमात्मा अपने अंतर आत्मा में है जैसा सोंच रखेंगे वैसा ही विचार आएगा |बुद्ध के लिए संसार का एक नियम है |अस्तिव का नियम है | जब आप उसके विपरीत जाते हो तो उसी कारण से दुःख पते हो |
उदाहरण के तौर पर –एक इन्सान नशे में डावाडोलचलता है और अपना हाथ पैर तोड़ फोड़ लेता है |ऐसा नहीं की परमात्मा उसको नशा करने का दंड दिया है | वह इन्सान खुद गिरा क्योंकि वह इन्सान गुरुत्वाकर्षण के नियम के विरुद्ध जा रहा था |उसकी शराब ही सुका दंड बन गया गुरुत्वाकर्षण का नियम है उलटे सीधे डामाडोल चलोगे तो गिरोगे |
जो नियम के साथ चलता है उसे उन्हें नियम सम्भाल लेता है जो नियम के विरुद्ध चलते है |वो अपने आप ही गिर पड़ते है |
महात्मा बुद्ध का जन्म
महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में कपिलवस्तु के पास लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था. बुद्ध जी के बचपन का नाम सिद्धार्थ था. उनके पिता जी का नाम शुद्धोधन एवं माताजी के नाम मायादेवी था. उनके बारे में प्रचलित है कि एक दिन बुद्ध घर से बाहर निकले तो उन्होंने एक अत्यंत बीमार व्यक्ति को देखा, जब थोड़ा आगे गए तो एक बूढ़े आदमी को देखा तथा अंत में एक मृत व्यक्ति को देखा. इन सब दृश्यों को देखकर उनके मन में एक प्रश्न उठा कि क्या मैं भी बीमार पड़ूंगा, वृद्ध हो जाऊंगा, और मर जाऊंगा? इन प्रश्नों ने उन्हें बहुत ज्यादा परेशान कर दिया था. तभी उन्होंने एक संन्यासी को देखा और उसी समय ही उन्होंने मन ही मन संन्यास ग्रहण करने की ठान ली.
27 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और संन्यास ग्रहण कर वे संन्यासी बन गए. महात्मा बुद्ध ने एक पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान की खोज में छः वर्षों तक कठोर तपस्या की जहां उन्हें सत्य का ज्ञान हुआ जिसे 'सम्बोधि' कहा गया. उस पीपल के पेड़ को तभी से बोधि वृक्ष कहा जाता है. महात्मा बुद्ध को जिस स्थान पर बोध या ज्ञान की प्राप्ति हुई उस स्थान को बोधगया कहा जाता है. महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया था एवं उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की. 483 ई.पू. में कुशीनगर में बैशाख पूर्णिमा के दिन अमृत आत्मा मानव शरीर को छोड़ ब्रहमाण्ड में लीन हो गई. इस घटना को ‘महापरिनिर्वाण’ कहा जाता है.